भगवद् गीता का सार
- जो हुआ वह अच्छा हुआ ,
- जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है।
- जो होगा , वह भी अच्छा होगा ।
- तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो ?
- तुम क्या लाए थे , जो तुमने खो दिया ।
- तुमने क्या पैदा किया , जो तुमने खो दिया ।
- तुमने जो लिया , यहीं से लिया ।
- जो दिया , यहीं पर दिया ।
- जो आज तुम्हारा है ,
- कल किसी और का था ,
- कल किसी और का होगा ।
- परिवर्तन ही संसार का नियम है
श्री मद्-भगवत गीता”के बारे में
1. प्रश्न – किसको किसने सुनाई?
उत्तर- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई।
2. प्रश्न – कहाँ सुनाई?
उत्तर- कुरुक्षेत्र (भारत के हरियाणा राज्य में ) की रणभूमि में।
3. प्रश्न – कितनी देर में सुनाई?
उत्तर- लगभग 45 मिनट में |
4. प्रश्न – क्यू सुनाई?
उत्तर- कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य सिखाने के लिए और आने वाली पीढियों को धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।
5. प्रश्न – कितने अध्याय है?
उत्तर- कुल 18 अध्याय |
6. प्रश्न – कितने श्लोक है?
उत्तर- 700 श्लोक |
7. प्रश्न – गीता में क्या-क्या बताया गया है?
उत्तर- निर्विकार भाव से कर्म कर , फल की चिंता ना कर।
8. प्रश्न – गीता को अर्जुन के अलावा और किन किन लोगो ने सुना?
उत्तर- धृतराष्ट्र एवं संजय ने |
9. प्रश्न – अर्जुन से पहले गीता का पावन ज्ञान किन्हें मिला था?
उत्तर- भगवान सूर्यदेव को
10. प्रश्न – गीता की गिनती किन धर्म-ग्रंथो में आती है?
उत्तर- उपनिषदों में |
11. प्रश्न – गीता किस महाग्रंथ का भाग है….?
उत्तर- गीता महाभारत के एक अध्याय शांति-पर्व का एक हिस्सा है।
12. प्रश्न – गीता का दूसरा नाम क्या है?
उत्तर- गीतोपनिषद |
13. प्रश्न – गीता का सार क्या है?
केवल सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए अपने आप को समर्पित करो. जो भगवान का सहारा लेगा, उसे हमेशा भय, चिंता और निराशा से मुक्ति मिलेगी |
14. प्रश्न – गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
उत्तर- श्रीकृष्ण जी ने- 574 , अर्जुन ने- 85 , धृतराष्ट्र ने- 1 , संजय ने- 40 |
श्रीमद् भगवद् गीता में कुल 18 अध्याय है ।
प्रत्येक अध्याय एक योग कहा जाता है। योग व्यक्तिगत चेतना का ईश्वरीय चेतना के साथ एकाकार करने का विज्ञान है। ये अध्याय हैं :
अध्याय 1: अर्जुन विषाद योग – महाभारत (कुरुक्षेत्र) युद्ध के शुरुआत में भगवान कृष्ण और अर्जुन में वार्तालाप, जिसमे अर्जुन युद्ध में दोस्तों और रिश्तेदारों को खोने का डर से युद्ध नही लड़ना चाहते हैं ।
अध्याय 2: सांख्य योग – भगवान कृष्ण अर्जुन को एक शिष्य के रूप में स्वीकार करते है । तब को भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं और युद्ध करने के लिए कहते हैं ।
अध्याय 3: कर्म योग – यहां भगवान कृष्ण स्पष्ट और व्यापक बताते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना कर्तव्य करना चाहिए है ।
अध्याय 4: ज्ञान योग – ज्ञानयोग में मूलतः दो शब्द हैं ज्ञान और योग, भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जून को गीता का उपदेश देते हुए व्यक्त किया था, ज्ञान एक विशिष्ट क्रिया है। जब कोई मोह में बंध जाता है, तब ज्ञानमार्ग ही मनुष्य को सही पथ पर लाता है।
अध्याय 5: कर्म सन्यास योग- कर्म योग और ज्ञान योग जानकर अर्जुन भ्रमित हो जाते हैं। तब उन्हें समझते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, सन्यास(त्याग) और कर्मयोग दोनो ही मुक्ति देता है । पर (ज्ञान रहित) कर्म त्याग से कर्म योग अच्छा है।
अध्याय 6: आत्म – संयम योग – इसमें आत्म बोध और नियंत्रण के बारे में बताया गया है ।
यहाँ ज्ञानयोग व अन्य पाठ के कुछ श्लोक नीचे दिखाया गया है ।
विषय का तत्वाधनः- ज्ञानयोग का मूल विषय है कि जीव( मनुष्य) का अपने को जानने तथा हम अपने को जानकर ही उचित क्रिया कर सकते हैं, इस लिए भगवान ने गीता में तत्वज्ञान पर जोर दिया है ।
ज्ञानयोग में मूलतः दो शब्द हैं ज्ञान और योग, भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जून को गीता का उपदेश देते हुए व्यक्त किया था, ज्ञान एक विशिष्ट क्रिया है।
जब कोई मोह में बंध जाता है, तब ज्ञानमार्ग ही मनुष्य को सही पथ पर लाता है। अन्यथा मोहपाश से निकलना नामुमकिन है।
इसीलिए गीता में भगवान ने अर्जुन को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए प्रारंभ में ही आत्मज्ञान का उपदेश दिया है।
ज्ञानाग्नि भस्मासात्कुरूतेअर्जुन:-
भगवान अर्जुन से कहा है कि ज्ञान समग्र कर्मों को भस्मीभूत कर देता है।
एक बार उस ज्ञान का उदय होने पर कु-वस्तु रूपी कर्म नहीं रह पाता है।
श्री रामकृष्ण परमहँस देव ने कहा है कि जो व्यक्ति एक बार मिश्री खा लेता है, उसके मुँह में गुड़ कैसे अच्छा लग सकता है।
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरूते तथा।
ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त करना ही हम लोगों के जीवन का परम ध्येय है। सुख-भोग या दुःख – हमारे जीवन का ध्येय इन दोनों में से एक भी नहीं है।
कोई व्यक्ति, चाहे संसार में रहे सन्यासी बने, चाहे जिस स्थिति में वह क्यों न हो, सभी अवस्था में ईश्वरीय कर्म कर सकता है कि उन कर्मों के द्वारा ज्ञानमार्ग में वह अग्रसर होते रहता है।
दाहिनोSस्मिन् यथा देहे कौमरं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।
इस देही की देह में जिस प्रकार कोमोर्य, यौवन, जरा आदि अवस्थाएँ उपस्थित होती हैं, वैसे ही मरने के बाद भी शरीर-परिवर्तन अथवा पुनर्जन्म होता है।
हमारे शरीर में जिस प्रकार वृद्धि, पूर्णता तथा ह्रासरूप नाना प्रकार के परिवर्तन उपस्थित होते हैं, देहान्तर प्राप्त होना भी उसी प्रकार का एक परिवर्तन मात्र है।
इस प्रकार देही यानि आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता, श्री रामकृष्ण परमहँस का कथन है कि जैसे चकमकी पत्थर को सैकड़ों वर्षों तक जल में डाल रखो, किन्तु उसको निकालकर घिसते हैं तो आग निकलती है।
हमारे देश के महापुरूष केवल बुद्धि के द्वारा ही किसी विषय प्रमाणित करके निश्चिन्त होकर नहीं बैठते थे, किन्तु जिससे उसको जीवन में परिणत किया जा सके इसकी चेष्टा किया करते थे एवं कर्य मे परिणत होने पर सत्य का लोगों मे जाकर उसका प्रचार करते थे।
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के झाँकी से पता चलता है कि उन्होंने गीता में जो कुछ भी कहा है, अपने जीवन की प्रत्येक घटना में उसका अनुष्ठान कर उसकी सत्यता को सिद्ध कर दिया है।
मनुष्य को ज्ञनयोग जरूरत इस लिए है कि अपनी मनुष्यता को कायम रखे। अहार, निंद्रा, भय और मैथुन आदि का ज्ञान पशु, पक्षी, एवं मनुष्यों में समान रूप से विद्यमान रहता है- ( दुर्गासप्तशती के इस श्लोक में वर्णित है ज्ञानमेतन्मनुष्याणां यतेषां मृगपक्षिणाम् )।
शास्त्र के अनुसार इस ज्ञान को ज्ञान नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें कोइ शक्ति का आभास या बोध नहीं होता, हम उस सत्ता का ज्ञान को ज्ञान कहेंगे जिसका हम अंश है। हमें ज्ञान चाहिए मैं कौन हूँ और मेरा किससे नाता है।
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Note:-This topic is co-authored with my older brother SUSHILDA.
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