CHHATH PUJA – छठ पूजा -WORKSHIP OF CHHATI MAA & SUN
छठ पूजा को उत्तर भारत का महापर्व माना जाता है । सूर्य ऐसे देवता हैं, जिन्हें वास्तव में देखा जा सकता है । छठ पूजा में मूलतः सृष्टि के आधार सुर्य भगवान की आराधना होती है । नदी या तालाब के जल में खड़े होकर सुर्य भगवान को अर्घ्य दिया जाता है ।
प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है। छठ पूजा में सबसे महत्वपूर्ण इसकी सादगी और पवित्रता है।
इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों , न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों और न पुरोहितों की जरूरत होती है।
ग़रीब हो या आमीर सबको इस पूजा को करने के लिए मिट्टी का चूल्हा, आम की लकड़ी का जलावन ,बाँस निर्मित सूप, टोकरी, गुड़, चावल और गेहूँ और गुड़, से निर्मित प्रसाद और फल चाहिए ।यह विक्रम संवत् में कार्तिक के महीने के छठे दिन मनाया जाता है।
छठ पूजा चार दिनों का पर्व है, जो दीवाली पर्व के चार दिन बाद शुरू होता है
पहला दिन-नहाय खाय :- छठ पूजा के पहले दिन भक्तजन नदी में नहाने के बाद ठेकुवा ( गेहूँ और गुड़, से निर्मित प्रसाद ) बनाते हैं।
दूसरा दिन -लोहंडा / खरना:- छठव्रती (छठ पूजा करने वाला भक्त) पूरे दिन उपवास करने के बाद , वे अपने परिवार के लिए खीर तैयार करते हैं। पहले छठव्रती प्रसाद खाती हैं ।
फिर परिवार और संबंधियों को प्रसाद के रूप में खीर, केला और रोटी में देती हैं । इसके बाद छठव्रती का निर्जला ( बिना पानी का ) 36 घंटे उपवास शुरू होता है ।
तीसरा दिन-संध्या अर्घ्य:- बाँस की टोकरी में प्रसाद में रखकर सूर्यास्त से पहले नदी या तालाब के किनारे जाते हैं । फिर जल में खड़े होकर सूर्य भगवान और छठी मैय्या की पूजा करते हैं।
इसके बाद फल और प्रसाद रखे गये बाँस की सूप में जल या दूध से भक्तगण द्वारा अस्तगमी ( डूबते हुए ) सूर्य भगवान को अर्घ्य दिया जाता है ।
चौथा दिन-उषा / सुबह अर्घ्य :- फिर बाँस की टोकरी में प्रसाद में रखकर सूर्योदय से पहले नदी या तालाब के किनारे जाते हैं । फिर जल में खड़े होकर सूर्य भगवान और छठी मैय्या की पूजा करते हैं।
इसके बाद फल और प्रसाद रखे गये बाँस की सूप में जल या दूध से भक्तगण द्वारा उगते हुए सूर्य भगवान को अर्घ्य दिया जाता है। इसके बाद छठव्रती का उपवास ख़तम होता है ।
CHHATH PUJA – छठ पूजा -WORKSHIP OF CHHATI MAA & SUN
छठ पूजा के संबंध में पौराणिक और लोक कथाएँ
1. रामायण काल में इस पर्व का महत्व :- एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद आयोध्या लौटने पर कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास कर सूर्यदेव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः सूर्यदेव की आराधना की थी।
2. महाभारत काल में इस पर्व का महत्व :- सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। एक मान्यता के अनुसार वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे । आज भी छठ पूजा में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है ।
3. ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस पर्व का महत्व : –प्रियवद और उनकी पत्नी मालिनी नाम का एक राजा था। लेकिन उनके कोई संतान नहीं है। तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी।
इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। राजा बहुत दुखी था और आत्महत्या करने का निर्णय लिया। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या “देवसेना “प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं ।
राजन तुम मेरा पूजन करो । राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण के आधार पर प्रकृति देवी के एक अंश को देवशेना कहा जाता हैं ।
देवशेना मातृका देवियों में सबसे श्रेष्ठ देवी मानी जाती ह जो समस्त लोकों के बालकों व् बालिकाओं की रक्षिता देवी हैं। षष्ठी देवी माँ या छठी मैया प्रजनन व् विकास की देवी भी मानी जाती हैं।
पुराणों में वर्णित माँ कात्यायनी भी इन्ही देवी स्वरुप हैं और जिन्हें स्कन्द माता के नाम से भी जाना जाता हैं छठी मैया और सूर्य देव दोनों की समायोजित पूजन व् आराधना सूर्य षष्ठी पूजन व् व्रत हैं ।